यह मस्तिष्क भी कितना अद्भुत है,
ब्रह्मांड के अंश से मानवता के सफर का अभियंता है ।
पर कोसों दूर ग्रहों का आकार भांप लेने वाला,
शायद अब तक स्वयं को ही नहीं समझ पाया है।
पर खुद ही विचारों की उधेड़बुन में उलझ गया।
इस जटिल शरीर का चालक,
क्यों मन से सरल संबंध नहीं रख पाया?
कैसे समझता मन यह बात,
कि कामयाबी के लिए ज़रूरी, खुद को परखना है।
इसने तो ठोकरें खा कर ही,
सच्चाई को समझना सीखा है ।
विस्मय है इस विडंबना पर,
इस मन और दिमाग के अजीब से टकराव पर।
क्यों शीशे से साफ शब्द जु़बाँ पर नहीं आ पाते,
दुनिया में अर्थ खोजते- खोजते,
क्यों हम स्वयं को ही भूल जाते?
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